वर्ण प्रकरण – संस्कृत वर्णमाला, Sanskrit Alphabet : Sanskrit Grammar

वर्णों का उच्चारण स्थान : हिन्दी, संस्कृत व्याकरण

उच्चारण स्थान तालिका uccharan sthan ki list

मुख के अंदर स्थान-स्थान पर हवा को दबाने से भिन्न-भिन्न वर्णों का उच्चारण होता है । मुख के अंदर पाँच विभाग हैं, जिनको स्थान कहते हैं । इन पाँच विभागों में से प्रत्येक विभाग में एक-एक स्वर उत्पन्न होता है, ये ही पाँच शुद्ध स्वर कहलाते हैं । स्वर उसको कहते हैं, जो एक ही आवाज में बहुत देर तक बोला जा सके ।

.tftable {font-size:12px;color:#333333;width:100%;border-width: 1px;border-color: #729ea5;border-collapse: collapse;} .tftable th {font-size:12px;background-color:#acc8cc;border-width: 1px;padding: 8px;border-style: solid;border-color: #729ea5;text-align:left;} .tftable tr {background-color:#d4e3e5;} .tftable td {font-size:12px;border-width: 1px;padding: 8px;border-style: solid;border-color: #729ea5;} .tftable tr:hover {background-color:#ffffff;}
.tftable {font-size:12px;color:#333333;width:100%;border-width: 1px;border-color: #729ea5;border-collapse: collapse;} .tftable th {font-size:12px;background-color:#acc8cc;border-width: 1px;padding: 8px;border-style: solid;border-color: #729ea5;text-align:left;} .tftable tr {background-color:#d4e3e5;} .tftable td {font-size:12px;border-width: 1px;padding: 8px;border-style: solid;border-color: #729ea5;} .tftable tr:hover {background-color:#ffffff;}

स्थान स्वर व्यंजन अन्तस्थ उष्म
1. कण्ठ
अ, आ
क, ख, ग, घ, ड़
ह, अ:
2. तालु
इ, ई
च, छ, ज, झ, ञ
3. मूर्द्धा
ऋ, ॠ
ट, ठ, ड, ढ, ण
4. दन्त
लृ
त, थ, द, ध, न
5. ओष्ठ
उ, ऊ
प, फ, ब, भ, म
6. नासिका
अं, ड्, ञ, ण, न्, म्
7. कण्ठतालु
ए, ऐ 
Row:7 Cell:3
8. कण्ठोष्टय
ओ, औ
9. दन्तोष्ठ्य

हिंदी की ध्वनियाँ  hindi ki dhwaniya

हिंदी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है। एक तो ये जिस रूप में लिखी जाती है, बिल्कुल उसी तरह बोली जाती है, किन्तु अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है. उदाहरण के लिए, बी(B) यू(U) टी(T) का उच्चारण ‘बट’ है तो पी(P) यू(U) टी(T) का ‘पुट’ होता है, जबकि या तो दूसरे शब्द का उच्चारण ‘पट’ होना चाहिए या फिर पहले का ‘बुट’। एक ही स्वर कहीं ‘यु’, ‘यू’ या ‘उ’ है तो कहीं ‘अ’ है। इसी तरह अरबी लिपि में तीन स्वरों से तेरह स्वरों का काम लिया जाता है। हिंदी में ऐसा नहीं है। इसमें लेखन और उच्चारण में बहुत अधिक शुद्धता और समानता मौजूद है। अनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग चिह्नों के प्रयोग ने इसे और वैज्ञानिक बना दिया है। बीसवीं सदी में जब हिंदी ने यूरोपीय भाषाओं से तथा अरबी-फारसी से शब्द अपनाए तो इसके लिए नए चिह्न भी ग्रहण किए। जैसे ‘डॉक्टर’ शब्द अंग्रेज़ी से आया है, इसका पहला स्वर है- ‘ऑ’, चूंकि हिंदी में यह स्वर उपलब्ध नहीं था, यहाँ ‘आ’ तो था; ‘ऑ’ नहीं था, इसलिए हिंदी में अंग्रेज़ी से आए ऐसे शब्दों के उच्चारण के लिए ‘ऑ’ चिह्न को अपना लिया गया। इसी प्रकार अरबी-फारसी के कुछ शब्दों के सटीक उच्चारण के लिए हिंदी ने पाँच नई ध्वनियाँ अपनाई- क़, ख़, ग़, ज़ और फ़। जाहिर है, इससे हिंदी की शब्द-संपदा तो बढ़ी ही, इसमें भावों को और अधिक सूक्ष्मता तथा स्पष्टता से अभिव्यक्त करने की शक्ति भी आई।

हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता की दूसरी विशेषता है- इसके शब्दों के उच्चारण की सटीकता। हिंदी भाषा की वर्णमाला में दो वर्ग हैं- स्वर और व्यंजन। इन दोनों वर्गों की ध्वनियों को इतने वैज्ञानिक तरीक़े से व्यवस्थित किया गया है कि इनके द्वारा किसी भी अभाषी व्यक्ति को हिंदी का पूरी सरलता के साथ शुद्ध उच्चारण करना सिखाया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि हम ‘उच्चारण के स्थान’ के आधार पर हिंदी की स्वर और व्यंजन ध्वनियों का बंटवारा करना चाहें, तो आसानी से किया जा सकता है। स्वर ध्वनियों के उच्चारण में किसी अन्य ध्वनि की सहायता नहीं ली जाती। वायु मुखगुहा से बिना किसी अवरोध के बाहर निकलती है, किन्तु व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में स्वरों की सहायता ली जाती है। व्यंजन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में भीतर से आने वाली वायु मुखगुहा में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में बाधित होती है। मुखगुहा के उन ‘लगभग अचल’ स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point) कहते हैं, जिनको ‘चल वस्तुएँ’ (Movable things) छूकर जब ध्वनि-मार्ग में बाधा डालती हैं तो ध्वनियों का उच्चारण होता है। मुखगुहा में ‘अचल उच्चारक’ मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि ‘चल उच्चारक’ मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ, तथा श्वासद्वार (ग्लोटिस) होते हैं। यानी कुछ ध्वनियों का उच्चारण कंठ, तालु, मूर्द्धा, दंत तथा ओष्ठ से किया जाता है तो कुछ का मुख के अंगों जैसे कंठ+तालु, कंठ+ओष्ठ, दंत+ओष्ठ, और मुख+नाक से संयुक्त रूप से भी किया जाता है।

हिंदी की सभी ध्वनियों का उनके उच्चारण स्थान के आधार पर वर्गीकरण-

कंठ्य ध्वनियाँ- kanth se bole jane bale varn

इस वर्ग की सभी ध्वनियों का उच्चारण कंठ से होता है। इस वर्ग की ध्वनियाँ हैं- अ, आ (स्वर); क, व, ग, घ, ङ (व्यंजन)।

तालव्य ध्वनियाँ- taalu se bole jane vale varn

जिस ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग तालु से स्पर्श करता है, उन्हें तालव्य कहते हैं। इ, ई (स्वर); च, छ, ज, झ, ञ, श, य (व्यंजन)।

मूर्द्धन्य ध्वनियाँ- moordha se bole jane vale varn

इसके अंतर्गत वे ध्वनियाँ रखी गई हैं, जिनका उच्चारण मुर्द्धा से होता है, जैसे- ट, ठ, ड, ढ, ण, ष (सभी व्यंजन ध्वनियाँ)।

दन्त्य ध्वनियाँ-  dant se bole jane vale varn

त, थ, द, ध, न, र, ल, स, क्ष (सभी व्यंजन ध्वनियाँ)।

ओष्ठ्य ध्वनियाँ- oshth se bole jane vale varn

जो ध्वनियाँ दोनों होंठों के स्पर्श से उत्पन्न होती है, उन्हें ओष्ठ्य कहते हैं। हिंदी में प, फ, ब, भ, म ध्वनियाँ ओष्ठ्य हैं।

अनुनासिक ध्वनियाँ- anunasik varn

इन ध्वनियों का उच्चारण मुंह और नाक दोनों के सहयोग से होता है। इनके उच्चारण के दौरान कुछ वायु नाक से निकलते हुए एक अनुगूंज-सी पैदा करती है। हिंदी की व्यंजन ध्वनियों का प्रत्येक वर्ग पाँच वर्णों का है, जो एक ही स्थान से उच्चारित होते हैं, जैसे- क, ख, ग, घ, ङ या च, छ, ज, झ, ञ या ट, ठ, ड, ढ, ण या त, थ, द, ध, न अथवा प, फ, ब, भ, म। इनके प्रत्येक वर्ग की अंतिम ध्वनि अर्थात ङ, ञ, ण, न और म अनुनासिक ध्वनि है। देवनागरी लिपि में अनुनासिकता को चन्द्रबिंदु (ँ) द्वारा व्यक्त किया जाता है। किंतु जब स्वर के ऊपर मात्रा हो तो चन्द्रबिन्दु के स्थान पर केवल बिंदु (ं) लगाया जाता है, जैसे – अँ, ऊँ, ऐं, ओं आदि। अनुस्वार भी इसी के अंतर्गत आते हैं

दन्त्योष्ठ्य ध्वनियाँ- dantoshth se bole jane vale varn

जिन व्यंजनों का उच्चारण दन्त और ओष्ठ की सहायता से होता है, उन्हें दन्त्योष्ठ्य व्यंजन ध्वनियाँ कहते हैं। जैसे – फ, व।

कंठ-तालव्य ध्वनियाँ- kanth talu se bole jane vale varn

इसमें वे दो स्वर ध्वनियाँ आती हैं, जिनका उच्चारण कंठ और तालु के सहयोग से होता है। जैसे- ए और ऐ

कंठोष्ठ्य ध्वनियाँ- kath oshth varn kaun hai

इन ध्वनियों का जन्म कंठ और ओष्ठों के सहयोग से होता है; जैसे ओ और औ

जिह्वामूलक ध्वनियाँ- jeehvamooliy varn kaun se hote hai

अरबी-फारसी से हिंदी में अपनाई गई तीन ध्वनियों का उच्चारण जिह्वा के बिलकुल पीछे के भाग (मूल) से होता है। ये हैं- क़, ख़ और ग़

वर्त्स्य ध्वनियाँ- varstya varn kaun se hai

इसके अंतर्गत अरबी-फारसी की ज़ और फ़ की ध्वनि आती है।

काकल्य- kaakaly varn kon se hai

जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में मुखगुहा खुली रहती है और वायु बन्द कंठ को खोलकर झटके से बाहर निकल पड़ती है उसे काकल्य व्यंजन ध्वनियाँ कहते है। जैसे हिंदी में ‘ह’। यह ध्वनि हिंदी में स्वरों की तरह ही बिना किसी अवरोध के उच्चरित होती है। हिंदी में ‘ह’ महाप्राण अघोष ध्वनि है।

हिंदी की ध्वनियों का उनके उच्चारण प्रयत्न के आधार पर वर्गीकरण-

स्पर्श- sparsh varn kaun se hote hai

स्पर्श ध्वनियाँ वे ध्वनियाँ है, जिसके उच्चारण में मुख-विवर में कहीं न कहीं हवा को रोका जाता है और हवा बिना किसी घर्षण के मुँह से निकलती है। प, फ, ब, भ, य, द, ध, ट, ठ, ड, ढ, क, ख, ग, घ आदि के उच्चारण में हवा रुकती है। अतः इन्हें स्पर्श ध्वनियाँ कहते है। अंग्रेज़ी में इन्हें स्टाप या एक्सप्लोसिव ध्वनियाँ तथा हिंदी में स्फोट ध्वनियाँ भी कहते हैं।

स्पर्श संघर्ष- sparsh sanghrsh varn kaun se hai

जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा तालु के स्पर्श के साथ-साथ कुछ घर्षण भी करती हुई आए तो ऐसी ध्वनियाँ स्पर्श संघर्षी ध्वनियाँ होती है। जैसे – च, छ, ज, झ।

संघर्षी- sangharshi dhwaniya kaun see hai

वह व्यंजन जिसके उच्चारण में वायु मार्ग संकुचित हो जाता है और वायु घर्षण करके निकलती है। जैसे – फ, ज, स

लुंठित- lunthit varn kaun se hai 

इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वानोक में लुण्ठन या आलोड़न क्रिया होती है। हिंदी की ‘र’ ध्वनि प्रकम्पित या लुंठित वर्ग में आती है।

पार्श्विक- parshwik dhwani varn

हिंदी की ‘ल’ ध्वनि पार्श्विक ध्वनि है, किंतु जिह्वानोक के दोनों तरफ से हवा के बाहर निकलने का रास्ता है। दोनों तरफ (पार्श्वो) से हवा निकलने के कारण इन ध्वनियों को पार्श्विक ध्वनियाँ कहा जाता है।

उत्क्षिप्त- utkshipt varn

उत्क्षिप्त ध्वनियाँ वे ध्वनियाँ हैं जिनके उच्चारण में जिह्वानोक जिह्वाग्र को मोड़कर मूर्धा की ओर ले जाते है और फिर झटके के साथ जीभ को नीचे फेंका जाता है। हिंदी की ‘ड’, ‘ढ’ आदि ध्वनियाँ उत्क्षिप्त हैं।

नासिक्य- naasikya varn or dhwaniya

इन व्यंजनों के उच्चारण में कोमलतालु नीचे झुक जाती है। इस कारण श्वासवायु मुख के साथ-साथ नासारन्ध्र से बाहर निकलती है। इसीलिए व्यंजनों में अनुनासिकता आ जाती है। हिंदी में नासिक्य व्यंजन इस प्रकार है – म, म्ह, न, न्ह, ण, ङ।



अल्पप्राण – महाप्राण, घोष – अघोष तालिका :- alppraan mahaapran, ghosh aghosh table

स्थान

अघोष 

घोष

अघोष 

घोष

अल्पप्राण

महाप्राण

अल्पप्राण

महाप्राण

अल्पप्राण

महाप्राण

अल्पप्राण

कण्ठ 
क 
 ख
ग 
ड़ 
तालु 
च  
छ 
ज 
श 
य  
मूर्द्धा 
ट 
ठ 
ढ़ 
ण 
ष 
र 
दन्त 
त 
थ 
द 
ध 
न 
स 
ल  
ओष्ठ
प 
फ 
ब 
भ 
म 
– 
– 
ं 
:

घोष या सघोष दोनों का एक ही अर्थ है।

वायु की शक्ति के आधार पर हिंदी की ध्वनियाँ का वर्गीकरण

अल्पप्राण– alppran kise kahate hai 


जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से कम श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें अल्पप्राण कहते है। हिंदी की प, ब, त, द, च, ज, क, ल, र, व, य आदि ध्वनियाँ अल्पप्राण है।


महाप्राण- mahaapraan kise kahate hai

जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से अधिक श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें महाप्राण कहते है। जैसे—ख, घ, फ, भ, थ, ध, छ, झ आदि महाप्राण है।

घोषत्व की दृष्टि से हिंदी की ध्वनियां

अघोष- aghosh varn

जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से श्वास वायु स्वर-तंत्रियों से कंपन करती हुई नहीं निकलती अघोष कहलाती है। जैसे- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स।


सघोष- saghosh / ghosh varn

जिन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास वायु स्वर-तंत्रियों में कंपन करती हुई निकलती है, उन्हें सघोष कहते है। जैसे – ग, घ, ङ, ञ, झ, म, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म तथा य, र, ल, व, ड, ढ ध्वनियाँ सघोष है।

हिंदी की ध्वनियों की कुछ अन्य विशेषताएँ –

दीर्घता- deerghata kyaa hai 

किसी ध्वनि के उच्चारण में लगने वाले समय को दीर्घता कहा जाता है। किसी भाषा मे दीर्घता का कोई सामान्य रूप नहीं होता। दीर्घता का अर्थ है किसी ध्वनि का अविभाज्य रूप में लंबा होना। हिंदी व अंग्रेज़ी में जहाँ ह्रस्व व दीर्घ दो वर्ग मिलते है, वहीं संस्कृत में ह्रस्व, दीर्घ व प्लुत तीन मात्राओं की चर्चा की गई है।

बलाघात- balaghaat kya hota hai

ध्वनि के उच्चारण में प्रयुक्त बल की मात्रा को बलाघात कहते है। बलाघात युक्त ध्वनि के उच्चारण के लिए अधिक प्राणशक्ति अर्थात् फेफड़ो से निकलने वाली वायु का उपयोग करना पड़ता है। बलाघात की एकाधिक सापेक्षिक मात्राएँ मिलती है- 


  1. पूर्ण बलाघात 
  2. दुर्बल बलाघात।


लगभग सभी भाषाओं में वाक्य बलाघात का प्रयोग होता है। साधारणतः संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण और क्रिया विशेषण बलाघात युक्त होते है और अव्यय तथा परसर्ग बलाघात वहन नहीं करते है। अंग्रेज़ी में शब्द बलाघात और वाक्य बलाघात दोनों मिलते हैं। हिंदी में बलाघात का महत्व शब्द की दृष्टि से नहीं अपितु वाक्य की दृष्टि से होता है। यथा – यह मोहन नहीं राम है। यहाँ विरोध के लिए राम पर बल दिया जाता है। हिंदी में बल परिवर्तन से शब्द का अर्थ तो नहीं बदलता पर उच्चारण की स्वाभाविकता प्रभावित हो जाती है।


अनुतान – anutaan kyaa hai / aaroh – avaroh 

स्वन-यंत्र में उत्पन्न घोष के आरोह-अवरोह के क्रम को अनुतान कहते है। अन्य शब्दों में स्वर-तंत्रियों के कंपन से उत्पन्न होने वाले सुर का उतार चढ़ाव ही अनुतान है। साधारणतः मानव की सुर-तन्त्रियाँ 42 आवृत्ति प्रति सेकेण्ड की न्यूनतम सीमा से लेकर 2400 की अधिकतम सीमा के मध्य कम्पित होती है। कंपन की मात्रा व्यक्ति की आयु व लिंग पर भी निर्भर करती है। सुर-तन्त्रियाँ जितनी पतली व लचीली होंगी कंपन उतना ही अधिक होगा तथा मोटी व लम्बी सुर तन्त्रियों के कंपन की मात्रा कम होंगी। यह कंपन यदि वाक्य के स्तर पर घटता-बढ़ता है तो उसे अनुतान कहा जाता है और जब शब्द के स्तर पर घटित होता है तब उसे तान कहते हैं। अनुतान की दृष्टि से सम्पूर्ण वाक्य को ही एक इकाई के रूप में लिया जाता है, पृथ्क्-पृथ्क् ध्वनियों को नहीं। सुर के अनेक स्तर हो सकते है, परन्तु अधिकांश भाषाओं में उसके तीन स्तर माने जाते हैं – 
  1. उच्च, 
  2. मध्य 
  3. निम्न
उदाहरण के लिए हिंदी में निम्नलिखित वाक्य अलग-अलग सुर-स्तरों में बोलने पर अलग-अलग अर्थ देता है:-
  1. वह आ रहा है। (सामान्य कथन), 
  2. वह आ रहा है? (प्रश्न), 
  3. वह आ रहा है ! (आश्चर्य)

    विवृत्ति- vivrati kya hai / hindi varno me  sankraman kya ahi ?

    ध्वनि क्रमों के मध्य उपस्थित व्यवधान को विवृत्ति कहा जाता है। वस्तुतः एक ध्वनि से दूसरी ध्वनि पर जाने की (अर्थात् उच्चारण की) दो विधियाँ हैं। अन्य शब्दों में संक्रमण दो प्रकार का होता है-

    1. जब एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि का उच्चारण अव्यवहृत रूप से किया जाता है, तो उसे सामान्य संक्रमण कहते हैं। इसी को आबद्ध संक्रमण कहा गया है। 
    2. जब एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि का उच्चारण क्रमिक न होकर कुछ व्यवधान के साथ किया जाता है, तब उसे मुक्त संक्रमण कहते हैं। मुक्त संक्रमण ही विवृत्ति है। 
    हिंदी में विवृत्ति के उदाहरण हैं:-

    • तुम्हारे = तुम + हारे, हाथी = हाथ + ही।

    Sanskrit Vyakaran (संस्कृत व्याकरण)

    Sanskrit Vyakaran (संस्कृत व्याकरण)

    संस्कृत (Sanskrit) भारतीय उपमहाद्वीप की एक धार्मिक भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा हैं।

    आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान ) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं।

    वर्ण विभाग
    संस्कृत वर्णमाला में 13 स्वर, 33 व्यंजन और 4 आयोगवाह ऐसे कुल मिलाकर के 50 वर्ण हैं । स्वर को ‘अच्’ और ब्यंजन को ‘हल्’ कहते हैं । अच् – 13, हल् – 33, आयोगवाह – 4…और अधिक पढ़े!

    माहेश्वर सूत्र – जनक, विवरण और इतिहास : संस्कृत व्याकरण (Maheswar Sootra)
    माहेश्वर सूत्र (संस्कृत: शिवसूत्राणि या महेश्वर सूत्राणि) को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, आख्यात, क्रिया, उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिङ्ग इत्यादि तथा…Read More

    प्रत्याहार – माहेश्वर सूत्रों की व्याख्या – जनक, विवरण और इतिहास : संस्कृत व्याकरण (Pratyahar)
    महेश्वर सूत्र 14 है। इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। फलतः, महर्षि पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप में ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को…Read More
    संस्कृत में संधि
    संस्कृत भाषा में संधियो के तीन प्रकार होते है-
    स्वर संधि – अच् संधि
    व्यंजन संधि – हल् संधि
    विसर्ग संधि
    पद – सार्थक शब्द
    सार्थक शब्दो के समूह को ही पद कहा जाता है। संस्कृत मे सार्थक शब्द दो प्रकार के होते है-
    सुबंत
    तिड्न्त
    (क) सुबंत प्रकरण
    संज्ञा और संज्ञा सूचक शब्द सुबंत के अंतर्गत आते है । सुबंत प्रकरण को व्याकरण मे सात भागो मे बांटा गया है  – नाम, संज्ञा पद, सर्वनाम पद, विशेषण पद, क्रिया विशेषण पद,  उपसर्ग, निपात।…और अधिक पढ़े।
    (ख) तिड्न्त प्रकरण
    क्रिया वाचक प्रकृति को ही धातु (तिड्न्त ) कहते है। जैसे : भू, स्था, गम् , हस्  आदि। संस्कृत में धातुओं की दस लकारे होती है। Dhatu Roop in Sanskrit, और अधिक पढ़े।
    णिजन्त प्रकरण – संस्कृत में प्रेरणार्थक क्रिया
     जब कर्ता  किसी कार्य को स्वयं ना करके किसी अन्य को करने को कहता है तब  उस क्रिया को प्रेरणार्थक क्रिया कहते है। जैसे – राम: प्रखरं ग्रहम् प्रेषति। – राम प्रखर को घर भेजता है।…और अधिक पढ़े।
    इसके अतिरिक्त संस्कृत में क्रियाओ के तीन रूप और होते है – सनन्त प्रकरण, यङन्त प्रकरण और नाम धातु।
    संस्कृत लिंग – संस्कृत में लिंग की पहिचान करना
    लिंग का अर्थ है-चिह्न। जिनके द्वारा यह पता चले कि अमुक शब्द संज्ञा स्त्री जाति के लिए और अमुक पुरुष जाति के लिए प्रयुक्त हुआ है, उसे लिंग कहते हैं। संस्कृत भाषा में लिंग का ज्ञान हिन्दी भाषा के आधार पर नहीं हो सकता क्योंकि बहुत से ऐसे शब्द हैं, जो हिन्दी में पुल्लिंग हैं…देखें- संस्कृत लिंग

    संस्कृत में उपसर्ग
    संस्कृत में बाइस (22) उपसर्ग हैं। प्र, परा, अप, सम्‌, अनु, अव, निस्‌, निर्‌, दुस्‌, दुर्‌, वि, आ (आं‌), नि, अधि, अपि, अति, सु, उत् /उद्‌, अभि, प्रति, परि तथा उप। इनका अर्थ इस प्रकार है… और अधिक पढ़े।
    संस्कृत में प्रत्यय
    प्रत्यय वे शब्द हैं जो दूसरे शब्दों के अन्त में जुड़कर, अपनी प्रकृति के अनुसार, शब्द के अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं। इसके दो रूप हैं:-
    कृत प्रत्यय
    तद्धित प्रत्यय
    संस्कृत में अव्यय
    भाषा के वे शब्द अव्यय (Indeclinable या inflexible) कहलाते हैं जिनके रूप में लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल इत्यादि के कारण कोई विकार उत्पत्र नहीं होता। ऐसे शब्द हर स्थिति में अपने मूलरूप में बने रहते है। चूँकि अव्यय का रूपान्तर नहीं होता, इसलिए ऐसे शब्द अविकारी होते हैं। अव्यय का शाब्दिक अर्थ है- ‘जो व्यय न हो।’…और अधिक पढ़े।
    संस्कृत के पर्यायवाची शब्द
    हिन्दी व्याकरण की तरह ही संस्कृत व्याकरण में पर्यायवाची होते हैं। ये पर्यायवाची शब्द सभी बोर्ड परीक्षाओ और अन्य हिन्दी के पाठ्यक्रम सहित TGT, PGT, UGC -NET/JRF, CTET, UPTET, DSSSB, GIC and Degree College Lecturer, M.A., B.Ed. and Ph.D आदि प्रवेश परीक्षाओं में पूछे जाते है।
    विलोमार्थी शब्द
    हिन्दी व्याकरण की तरह संस्कृत व्याकरण में भी विलोम शब्द होते हैं। इन विलोम शब्दों में ज्यादा अंतर नहीं होता है। इस प्रष्ठ पर कुछ महत्वपूर्ण संस्कृत विलोम शब्द दिये गए हैं।
    समोच्चरित शब्द एवं वाक्य प्रयोग
    जो शब्द सुनने और उच्चारण करने में समान प्रतीत हों, किन्तु उनके अर्थ भिन्न -भिन्न हों , वे श्रुतिसमभिन्नार्थक / समोच्चरित शब्द कहलाते हैं !
    संस्कृत में कारक
    व्याकरण में संज्ञा या सर्वनाम शब्द की वह अवस्था जिसके द्वारा वाक्य में उसका क्रिया के साथ संबंध प्रकट होता है उसे कारक कहते हैं। । कारक यह इंगित करता है कि वाक्य में संज्ञा या सर्वनाम का काम क्या है। कारक कई रूपों में देखने को मिलता है। संस्कृत व्याकरण में कारक पढ़ने के लिए संस्कृत कारक पर क्लिक करें।
    संस्कृत में समास
    जब अनेक पद अपने जोड़नेवाले विभक्ति-चिह्नादि को छोड़कर परस्पर मिलकर एक पद बन जाते हैं, तो उस एक पद बनने की क्रिया को ‘समास’ एवं उस पद को संस्कृत में ‘सामासिक’ या समस्तपद’ कहते है। संस्कृत व्याकरण में समास पढ़ने के लिए संस्कृत समास पर क्लिक करें।
    संस्कृत में वाच्य
    वाच्य क्रिया के उस रूप को कहते है जिससे पता चलता है कि वाक्य में क्रिया के द्वारा किसके विषय में कहा गया है। Read in Deatail – वाच्य
    संस्कृत में रस – काव्य सौंदर्य
    ‘स्यत आस्वाद्यते इति रसः’- अर्थात जिसका आस्वादन किया जाय, सराह-सराहकर चखा जाय, ‘रस’ कहलाता है। Read in Deatail -संस्कृत में रस
    संस्कृत में अलंकार – काव्य सौंदर्य
    ‘अलंकार शब्द’ ‘अलम्’ और ‘कार’ के योग से बना है, जिसका अर्थ होता है- आभूषण या विभूषित करनेवाला । शब्द और अर्थ दोनों ही काव्य के शरीर माने जाते हैं अतएव, वाक्यों में शब्दगत और अर्थगत चमत्कार बढ़ानेवाले तत्व को ही अलंकार कहा जाता है। Read in Deatail -संस्कृत में अलंकार
    संस्कृत में अनुवाद करने के कुछ टिप्स
    Learn Sanskrit Translation: संस्कृत भाषा के सरल वाक्यो का अनुवाद करना सीखें- Sanskrit Translation
    संस्कृत के प्रमुख साहित्य एवं साहित्यकार
    संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है।…Sanskrit Ke Important Granth/Sahitya